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शादी के लड्डू

वेब ज़िन्दगी
वेब ज़िन्दगी
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यह रचना मेरी नहीं है , इन्टरनेट से ली गयी है.वैसे यह अनुभव अभी तक मुझे नहीं मिला है.मै आप लोगों के सामने इस रचना को पेश कर रहा हूँ.मेरा इरादा किसी को ठेस पहुंचाने का नहीं है.

अभी शादी का पहला ही साल था,
ख़ुशी के मारे मेरा बुरा हाल था,
खुशियाँ कुछ यूँ उमड़ रही थी,
की संभाले नहीं संभल रही थी,

सुबह सुबह मैडम का चाय ले कर आना,
थोड़ा शरमाते हुए हमें नींद से जगाना,
वो प्यार भरा हाथ हमारे बालों में फिराना ,
मुस्कुराते हुए कहना कि,
डार्लिंग चाय तो पि लो,
जल्दी से रेडी हो जाओ, आप को ऑफिस भी है जाना,

घरवाली मेहेरबान का रूप ले कर आई थी,
दिल और दिमाग पर पूरी तरह छायी थी,
सांस भी लेते थे तो नाम उसी का का होता था,
इक पल भी दूर जीना दुश्वार होता था,





५ साल बाद

 

सुबह सुबह मैडम का चाय लेकर आना ,
टेबल पर रख कर जोर से चिल्लाना ,
आज ऑफिस जाओ तो मुन्ना को,
स्कूल छोड़ते हुए जाना,
सुनो एक बार फिर वोही आवाज़ आई,
क्या बात है अभी तक छोड़ी नहीं चारपाई,
अगर मुन्ना लेट हो गया तो देख लेना,
मुन्ने कि टीचर्स को फिर खुद ही संभल लेना,

न जाने घरवाली कैसा रूप ले कर आई थी,
दिल और दिमाग पर काली घटा छायी थी,
सांस भी लेते हैं तो उन्ही का ख्याल होता है,
अब हर समय ज़ेहन में एक ही सवाल होता है,
क्या कभी वह दिन लौट के आयेंगे ,
हम एक बार फिर कुंवारों कि तरह रह पाएंगे.

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